रविवार, नवंबर 13, 2011

भारतीय नारी .....

हाय !वो अभागी भारतीय नारी .....
आँखों में आँसू दिल में दर्द ,
जिसे मिला न कोई हमदर्द ,
पाई जिसने कदम-कदम पर लाचारी ,
हाय !वो अभागी भारतीय नारी ,
आँचल में छिपी ममता ,
बेबसी चेहरे पर तेरी ,
बहती रही  जो गंगा बन ,
न किसी ठावँ ठहरी ,
किसी ने पाप धोया ,
तो किसी ने गन्दगी ,
तो कभी जमाने ने कराई खुद की बन्दगी ,
कभी बेचीं गयी,कभी नोची गयी ,
कभी जला दी गयी बेचारी, 
हाय !वो अभागी भारतीय नारी ,

तुम्हारा --अनंत 

सोमवार, नवंबर 07, 2011

मैं आवारा शायर ,

इंसान कहाँ समझती है दुनिया गरीबों को ..............





















मैं आवारा शायर ,फिरूँ मारा-मारा ,
इसे देखता ,उसे देखता ,
खुशियों को खाता,ग़मों को चखता ,
छूता समझता जहाँ का नज़ारा ,
मैं आवारा शायर फिरूँ मारा-मारा..........

वो झुनिया की इज्जत ,लोला की लाज ,
बसंती के रूप को देखे समाज ,
सौ के पत्ते पर उनको लेटे मैंने देखा , 
सभ्य को असभ्य बनते हुए देखा ,
मैं चिल्लाया पर सोता रहा संसार सारा ,
मैं आवारा शायर फिरूँ मारा-मारा..........

मालिक राजू को पीटे, धर बाँह घसीटे ,
पाँच साल का राजू, है बनिया का बियाजू ,
गाल आंसू के धब्बे ,फिर भी आँख उसकी चमके ,
वो कीताबों से दूर, है महेनत में चूर ,
हिन्दुस्तान के भविष्य को कूड़े से खाना बीनते देखा ,
जिन्दगी जीने के लिए  बचपन को मरते देखा ,
अब राजू क्या जाने बाल श्रम अधिनियम बेचारा ,
मैं आवारा शयर फिरून मारा-मारा ............



                                                         तुम्हारा --अनंत 

हिंदुस्तान में गरीबों की हालत जो है वो है ही पर उस पर जो सबसे  ज्यादा असहनीय और दारुण है वो है बच्चों और महिलाओं की हालत ,जब घर के मर्द नशे में धुत हो कर कहीं नाली में पड़े रहते है या फिर जब उनकी कमाई से घर के सभी लोगों की पेट की आग नहीं बुझती तब मजबूर हो कर महिलाओं को जिस्म फरोसी और बच्चों को मजदूरी करनी पड़ती है ...........

                           

गुरुवार, नवंबर 03, 2011

वो मुझको सताता है .....!!

जनकवि विद्रोही जी ............


वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है 
जो नहीं देखना चाहता वही दिखता है
कितना बेदर्द है वो ऊपर  वाला मदारी
थक चुका हूँ मैं,  फिर भी मुझको नचाता है
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है ........

खाना नहीं वो मुझको ग़म खिलाता है 
पानी नहीं वो मुझको आंसू पिलाता है 
जब कभी मन मार कर मैं सो जाता हूँ
मार  कर थप्पड़ वो मुझको जगाता ह,
वक़्त बेवत वो मुझको सताता है.........

मुझे यकीं था वो  मेरी इज्ज़त  बचा लेगा 
जब कभी मैं गिरूंगा वो मुझको उठा लेगा
पर ग़लत था मैं, ग़लत थी ये सोच मेरी 
सरेआम, भरे बाज़ार वो मेरी इज्ज़त लुटता है ,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको  सताता है ............

जब थामी कलम मैंने और कलमकार बन गया ,
बस उसी दिन उसकी नज़र में गुनहगार बन गया ,
निराला,मुक्तिबोध बनने की वो कीमत माँगता है,
गरीबी से जुझाता  है, भूंख से तड़पाता है ,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है ........

महफ़िलों में अक्सर दिल का दर्द कहता हूँ ,
कविता में आँखों से आंसूं बन कर बहता हूँ 
मरी हुई हसरतों,अरमानों  की लाश पर  ,
ये खुदगर्ज जमाना  ताली बजाता  है,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है.........

 तुम्हारा --अनंत  



महाकवि निराला जी..............

जनकवि रमाशंकर ''विद्रोही'' और महाकवि निराला को  मेरी ये कविता आदर भाव से समर्पित | ये दोनों ऐसे कवि है जिन्होंने कविता लिखने के साथ-साथ  कविता को जिया भी | ये दोनों कवि मेरे लिए आदर्श  का श्रोत है | निराला जी  और विद्रिही जी ने ये सिखाया है कि कैसे जीवन को अपनी शर्त पर जिया जाता है फिर इसके लिए चाहे जो कीमत देनी पड़े , मैं इनदोनों को जब भी याद करता हूँ तो मुझे मुक्तिबोध की पंक्तियाँ ''अभिवयक्ति के खतरे उठाने पड़ेंगे''याद आ जाती है | सच में इन सब कवियों ने वास्तव में अभिव्यक्ति के खतरे उठाये है ,विद्रोही जी आज भी JNU  की सड़कों पर फक्कड़ों की तरह जनता की आवाज़ में,जनता की तरह फटे कपड़ों, मैले कुचैले वेश मेंअपनी पूरी सामाजिक,राजनीतिक ,
औरआर्थिक चेतना  से सृजित कविता ,
करते हुए मिल जायेंगे ,मेरा  उन सभी जनता के कवियों के जीवन संघर्ष को नमन जिन्होंने अभिव्यक्ति के खतरे उठाए है और जो लगातार उठा रहे है उन्हें भी सलाम .....और मेरी ये कविता उन सबको समर्पित |

तुम्हारा--अनंत
  

मंगलवार, नवंबर 01, 2011

हमारे पसीने से

अमीरों के महलों में में रोशनी है ,हमारे पसीन से ...............

अमीरों के महलों में में रोशनी है ,हमारे पसीने से ,
खामोस हैं सभी मुफलिस फ़क़त मतलब है जीने से ,
रोटी दो वक़्त की मिल जाये शान  से,
इससे बढ़ कर और क्या माँगे भगवान से,
हँसी , ख़ुशी, प्यार के अल्फ़ाज,
नगमे, तराने,बजते हुए साज,
कहाँ नसीब हैं हम बदनसीबों को ,
दुनिया इंसान कहाँ समझती है हम गरीबों को,
ताक़तवर कभी नहीं चूकता मजलूमों को दबाने से ,
अमीरों के महलों में रौशनी है हमारे पसीने से ............

त्योहारों की टीस-ओ- कसक, उलझन-ओ-मसायल ,
हम तो होते हैं रोज़ सुबह-ओ-शाम घायल ,
घुटते हैं बहार-ओ-भीतर ,लाचार हो कर ,
वो बना बैठा है मुन्सिफ गुनहगार हो कर ,
इंसाफ़ की तमन्ना भी अब बेमानी है ,
मुँह में आह, दिल में दर्द, आँखों में पानी है,
फिर भी हम मुफलिसों की दरियादिली तो देखिये ,
हँस कर कहते हैं अब क्या होगा रोने से ?    
अमीरों के घर में रौशनी है हमारे पसीने से ,
खामोस हैं सभी मुफलिस फ़क़त मतलब है जीने से........

तुम्हारा --अनंत 

सोमवार, अक्तूबर 31, 2011

मैंने माँ को देखा है ,

माँ 
मैंने माँ को देखा है ,
तन और मन के बीच ,
बहती हुई किसी नदी की तरह ,
मन के किनारे पर निपट अकेले,
और तन के किनारे पर ,
किसी गाय की तरह बंधे हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी मछली की तरह तड़पते हुए  बिना पानी के,
पर पानी को कभी नहीं देखा तड़पते  हुए बिना मछली के ,
मैंने माँ को देखा है ,
जाड़ा,गर्मी, बरसात ,
सतत खड़े किसी पेढ़  की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
हल्दी,तेल, नमक, दूध, दही, मसाले में सनी हुई ,
किसी घर की गृहस्थी की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी खेत की तरह जुतते हुए,
किसी आकृति की तरह नपते हुए,
घडी  की तरह चलते हुए,
दिए की तरह जलते हुए ,
फूलों की तरह महकते हुए ,
रात की तरह जगते हुए ,
नींव में अंतिम ईंट की तरह दबते हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
पर..... माँ को नहीं देखा है,
कभी किसी चिड़िया  की तरह उड़ते हुए ,
खुद के लिए लड़ते हुए , 
बेफिक्री से हँसते हुए ,
अपने लिए जीते हुए, 
अपनी बात करते हुए ,
मैंने माँ को कभी नहीं देखा ,

मैंने बस माँ को माँ होते देखा है ,

तुम्हारा --अनंत 

मंगलवार, अक्तूबर 18, 2011

इस समुद्र के तन पर ध्यान से देखो खादी चढ़ी हैं
समुद्र के चुम्बकत्व को ख़तम करना है ,
जो खिंच कर पी जाता हैं सैकड़ों नदियाँ ,
हज़ारों लोगों को प्यासा छोड़ कर ,
तड़पते देखता है मुस्कुराते   हुए ,
देश और प्रदेश की राजधानियों में,
 सबसे शानदार इमारतों में हिलकोरा मरता हुआ ,
शोषित कंठों के रुदन पर अट्टहास करता हैं ,
यहीं  पर  बहता  है वो समुद्र ,अट्टहास करते हुए  

तुम्हारा--अनंत 

सोमवार, अक्तूबर 17, 2011

15 अगस्त 1947 ,

आजादी के पहले 
कई बार ऐसा लगा है ,
स्वतंत्रता कैद हो गयी है ,
तारीख के किसी पुराने ,
जर्जर किले में,
जिसका नाम है ,
15 अगस्त 1947 ,
 उस किले के पीछे ,
और आगे बह रही है
मासूमों की खून की नदियाँ ,
जिनका कुसूर बस इतना था
कि उन्हें आजादी प्यारी थी 
आजादी के बाद 

तुम्हारा --अनंत

गुरुवार, अक्तूबर 13, 2011

खेत में घुट रहा हैं ,हिंद का किसान ,

हे मेघ तू मेरे प्राण बचा ले .................
खेत में घुट रहा हैं ,हिंद का किसान ,
जिन्दगी से हार कर, त्यागता है प्राण ,
धरणी पर रूप हरी का विपन्न है ,
जो खून इसका चूसता है,वो परजीवी प्रसन्न है ,
खादी में वो है लिपटा ,बैठा है गद्दी चापे ,
फैला हुआ हैं कितना ,अब कौन उसे  नापे ,
मजबूर हो गए सब हलधारी बलराम , 
गूंजता कहीं नहीं जय जवान ,जय किसान ,
खेतों में घुट रहा ,हिंद का किसान .............
खलियान में हैं मातम खेत खाली पड़े  हैं ,
क़र्ज़ हुआ भारी इन्द्र भी रूठे खड़े हैं ,
धरती पुत्र धरती गगन निहारता हैं ,
व्याकुल हो कर हे मेघ! पुकारता हैं ,
आँखें हुई बंज़र ,धड्काने थक गयी हैं ,
अधरों पर हँसी की सरिता रुक गयी हैं ,
बूढा था वो पहले ही, अब टूट ही  गया है,
बढ़ते हुए भारत में कृषक छूट ही गया है ,
लड़ रहा हैं वो आज पाने को सम्मान ,
खेतों में घुट रहा हैं हिंद का किसान ,
जिन्दगी से हार कर त्यागता हैं प्राण ...............

तुम्हारा --अनंत

बुधवार, अक्तूबर 12, 2011

लोकतंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए ,


                      लोकतंत्र में लोक कि इज्जत लूट-लाट कर ,ये सब नेता अब छैल-छबीले हो गए 
लोकतंत्र के सारे  तंत्र ढीले हो गए ,
राजनितिक दल नटों के कबीले हो गए ,
टेकते थे जो कल तक अंगूठा सरे आम ,
जीत कर संसद गए, कि रंग-रंगीले हो गए ,
लोक तंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए .........
क्या करें ऑप्शन कोई रीमेन नहीं हैं ,
चुनाव में अबकी कोई क्लीन नेम नहीं हैं ,
हर नेम पर दो चार मुकदमा चढ़ा है ,
कोई चोर,कोई डकैत, कोई आतंकवादी खड़ा है,
कल राजनीति की धरती पर जो वृक्ष लगे थे ,
आज वो सारे वृक्ष जहरीले हो गए ,
लोक तंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए .............
नेता गर ये हैं तो गाँधी और सुभाष क्या थे ,
संघर्षशील और जूझारू गर ये हैं तो भगत और आजाद क्या थे ,
ये A.C में रहने वाले गरीबों का खून पीते हैं ,
लोकतंत्र कि लाश चूस कर ये परजीवी जीते हैं ,
शर्म नहीं आती इनको ये बेशर्मो कि औलादें हैं ,
इनके हिस्से कि शर्म ओढ़ कर वोटर खुद शर्मीले हो गए ,
लोकतंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए ...........
संसद कि हद तोड़- ताड़ कर बन सियार चिल्लाते हैं ,
छीन-छान कर हक जनता का ,ये स्विस बैंक पहुंचाते हैं ,
शान तिरंगे कि धूमिल करके ,उसके नीचे जाम लड़ाते हैं ,
रोटी को जनता रोती हैं ,ये उसके आंसू पर मुस्काते हैं ,
लोकतंत्र में लोक कि इज्जत लूट-लाट कर ,
ये सब नेता अब छैल-छबीले हो गए 
लोकतंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए,
राजनीतिक दल नटों के कबीले हो गए ...........

तुम्हारा --अनंत 


शुक्रवार, सितंबर 30, 2011

लावारिश सामान

माँ तो बस माँ होती है ,माँ जैसी और कहाँ होती है ????????????????
रात भर  चलता रहा ,
जहन के मैदान में ,
धीरे -धीरे ..........
शायद कोई ख्याल था ,
या फिर ख्याल का बच्चा ,
वो बम्बई की इमारत जितना सख्त और ऊँचा ,
या फिर तुरंत पैदा हुए बच्चे सा रेशमी ,
वो ख्याल कुछ अजीब ही था ,
हाँ कुछ अजीब ही था वो ................
माँ का दूध महक रहा था उस ख्याल से ,
आँखों में दिवाली का परा गया काजल लगा कर आया था वो ख्याल ,.....
पर मैं क्या करता ?,
बीबी बगल में लेटी थी ,

वो ख्याल बड़ी खामोशी से चिल्ला रहा था !!!!!!!!!!
 तुम यहाँ  मखमली गद्दे पर सो रहे हो ,
माँ वहाँ रसोई में  सा पड़ी है ,

माँ की याद में -
तुम्हारा --अनंत 

मंगलवार, सितंबर 27, 2011

काश मैं भी कोई कविता होता ,...............

आज मुक्तिबोध की बहुत याद आ रही है ,बड़ी दिन बाद मुक्तिबोध से बात हुई .मतलब पढ़ा ..
गर होंठ खोल कर दाँत दिखा देने को हँसी  कहतें है ,
अँधेरे में गम छिपा कर ,उजाले में मुस्कुराने को ख़ुशी कहते है ,
आंसुओं को पी कर ,मुर्दे लम्हों को जी कर ,
साँसों को ढोना ,दिल की गहराई में रोना ,
जिन्दगी है ?????
तो बेहतर है ऐसी हँसी ,खुशी ,जिन्दगी से ,
दर्द ,दुःख और मौत ,
कम से कम ये जो है वो दिखते तो है,
गर नुकीले है तो कहीं न कहीं चुभते तो है ,
ये एक हैं इनके मतलब भी एक हैं ,
गर बुरे हैं तो बुरे हैं ,
गर नेक हैं तो नेक हैं ,
पर ख़ुशी ,हँसी और जिन्दगी का कोई एक  मतलब नहीं ,
हर किसी की अपनी परिभाषा है ,
कोई समझौतों की किस्ती मौत को जिन्दगी समझता है ,
तो किसी को समझौते के खिलाफ लड़ते हुए मरना जिन्दगी लगता है ,
हर समय हँसी ,ख़ुशी और जिन्दगी गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते है ,
और मौका लगते ही साँप की तरह डस लेते हैं ,
मैं अब उस जंगल में नहीं जाना चाहता ,
जहाँ ये हँसी ,खुशी और जिन्दगी रहते है,
क्योंकी मैं जनता हूँ कि.......
बड़ी-बड़ी इमारतों के जंगलों के बीच जहाँ २१वीं  सदी की हँसी ,खुशी और जिन्दगी बसती है ,
वहाँ इंसान नहीं रहते ,
और जहाँ इंसान रहते हैं ,
वहाँ २१वीं सदी की हँसी ,खुशी और जिन्दगी नहीं रहती ,

खैर इस वक़्त मैं बहुत परेशान हूँ .........
हँसी ,खुशी और जिन्दगी चुनूँ की इंसान .............???????????
इसी परेशानी में दिन रात कविता बनता हूँ ...........

काश मैं भी कोई कविता होता ,...............

तुम्हारा --अनंत

सोमवार, सितंबर 26, 2011

आसान नहीं होता ,

पाश को पढ़ना और फिर-फिर पढ़ना अपने समय के प्यार और अपने समय की नफ़रतों को जानने की तरह है.
भूंखे पेट ,
भूखों के लिए लड़ना ,
आसान नहीं होता ,
जंगलियों के बीच ,
इंसान बन कर रहना ,
आसान नहीं होता ,
ईमान के बाज़ार में,
ईमान बचा कर रखना ,
आसान नहीं होता ,
खुद का घर जला कर ,
दूसरों का घर रोशन करना ,
आसान  नहीं होता ,
झूठों  के बीच ,
सच्चा बन कर रहना ,
आसान नहीं होता ,
पर ये भी सच है मेरे दोस्त !
आसान काम करने वाला ,
महान नहीं होता ,
और महानता का काम ,
कभी आसान नहीं होता ,
तुम्हारा --अनंत 

महान क्रांतिकारी कवि पाश की याद में ये मेरी रचनात्मक स्मृति ,उनकी लेखनी में जो आग थी उसकी हम जैसे परिवर्तनकामी लेखकों को बहुत जरूरत है .................................पाश क्रातिकारी कविता के कीर्ति स्तम्भ थे, वो सदैव प्रेरणा श्रोत के रूप में दैदीप्तमान रहेंगे ,,,,,,,,,,,,,,,
(पाश की याद में ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
ये मेरी कविता उन्ही को समर्पित है )

मंगलवार, सितंबर 13, 2011

कविता नहीं लिखता ............

कौन कहता है कि मैं कविता लिखता हूं , 
मैं लिखता हूँ पर कविता नहीं ........
मैं लिखता हूँ .......
अपने मन की बात को ,
दिल के दर्द को ,जज्बात को ,
ख़ुशी को , उमंग को  ,बहती तरंग को ,
प्रक्रति के प्रेम को ,इंसानों की जंग को ,
कलियों को ,फूलों को ,उनकी महक को ,
पक्षियों के जीवन को ,गुंजन को ,उनकी चहक को ,
नदियों की कल -कल को ,झरनों की झरन को ,
चन्द्रमा की शीतलता को ,आकाश की स्थिरता को ,
सूरज की लाली को ,पंडों की हरियाली को ,
मैं लिखता हूँ ...........
नदी और सागर के प्यार को , प्यार के खुमार को ,
झूठ और सच की तकरार को , छाई हुई बहार को ,
होठों की मुस्कराहट को ,दबे पांवों की आहट को ,
काल के कपाल को ,शोभित मृत्यु कपाट को ,
जन्म की खुशियों को ,मरण  के अवसाद को  ,
उत्तेजना की स्फूर्ति को ,छाये हुए प्रमाद को ,
जीत को  ,प्रीत को ,जीवन के मीत को ,
ख़ुशी को ,दुख को सर्वत्र फैले भयभीत को ,
लिखता हूँ ...........
मैं लिखता हूँ ...............
रिश्तों के ताने बाने को, टूटते मकानों को ,
भाई बहन के लगाओ को ,माँ बाप के जुड़ाव को ,
पति-पत्नी के संबंध को ,प्यार के बन्ध को ,
लुटते हुए बचपन को ,बटते हुए आँगन को ,
अस्थिर धरा को ,काली ज़रा को ,
महकती फिजा को ,बहती हवा को ,
आँखों में पानी को ,सिसकती जवानी को ,
मजबूर कहानी को ,जिन्दगी वीरानी को ,
लिखता हूँ ..................
मैं लिखता हूँ ...............
फैले हुए डर को , शक्तिहीन कर को ,
धमाकों की आवाज़ को ,सहमे समाज को ,
फर्श पर फैले खून को ,उमड़ते जूनून को ,
रोते बिलखते परिवार को ,पल में उजड़ते संसार को ,
राजनीतिक कुटिलता को  ,संसदीय जटिलता ,
भूंखे पेटों को ,आसमाँ के नीचे लटों को ,
मैं लिखता हूँ ........मैं कविता नहीं लिखता हूँ ...........
मैं सच्चाई लिखता हूँ ...
जब अच्छाई देखता हूँ ....
तब अच्छाई लिखता हूँ .......
जब बुराई देखता हूँ 
तब बुराई लिखता हूँ ..........
मैं लिखता हूँ
 पर कविता नहीं लिखता !!!!!!!!!

तुम्हारा ---अनंत 


शनिवार, मई 14, 2011

याद आई तेरी जब-जब

तेरी यादमें अक्सर आंसू बहता हूँ , ये बताओ तुम मुझे, क्या मै भी तुम्हे याद आता हूँ ??   


याद आई तेरी जब-जब , 
नयन सावन से झरे ,
आँखें सागर हो गयी,
 अश्रु झर-झर कर गिरे ,
मैं विकल विह्वल हुआ ,
प्रेम में घायल हुआ ,
आज बनने को चला था ,
बीता हुआ कल हुआ ,
एक ह्रदय साथ था ,
 न जाने कहाँ खो गया ,
बिन ह्रदय कोई जगत में,
 कैसे जिए ,कैसे मरे ,
याद आई तेरी जब-जब , 
नयन सावन से झरे ..........
नदी बहती रही किनारे ,
मिल सके न आज तक प्यारे ,
एक किनारे पर एक किनारा  ,
दूजे पर दूजा निहारे ,
प्राण तन से है अलग ,
तन प्राण को पल-पल पुकारे ,
प्राण बिन ये तन बिचारे ,
कैसे अपना जीवन गुजारे , 
याद आई तेरी जब-जब , 
नयन सावन से झरे ..............
वो तेरा स्पर्श प्यारे ,
धडकनों में अब तक बसा है ,
वो तेरी आवाज़ की धुन ,
मन मेरा ये नाचता है ,
जब कोई रोता है अकेले ,
खुद ही आंसू पोंछता है ,
प्रेम यदि  अपराध है तो ,
हो गया ,अब क्या करें ,
याद आई तेरी जब-जब , 
नयन सावन से झरे ,
आँखें सागर हो गयी,
 अश्रु झर-झर कर गिरे ,,

तुम्हारा --अनंत 

गुरुवार, मई 12, 2011

एक बार क्रांति पंथ पर

रक्त चाट कर महापुरषों का समाज कोई बदलता है 
ये क्रांति का पंथ है ,
इसका न कोई अंत है ,
राह  शूल है पड़े ,
अनल अंगार है जड़े ,
 है यदि अडिग विचार से ,
तो व्यर्थ भय प्रहार से ,
ये अनल तुझे जला न पाएगी ,
दसों दिशाएं तेरी कीर्ति गान गाएंगीं ,
गूंजेगा जीवन में फिर एक राग अमर ,
एक बार क्रांति पंथ पर,
झूम जा जीवन की रज भिखेर कर ,
पीसता है दाँत तू ,
तू बंधता है मुट्ठियाँ ,
तू खीजता है एकांत में ,
भींच कर के चभरियाँ ,
हाँथ अपने ले खड़ग ,
विचार सिंह शहीद  का ,
असफाक,रोशन ,बिस्मिल का, 
बोस और आजाद का , 
उत्सर्ग कर तू प्राण अपने ,
तृषित दृगों को निहार कर ,
एक बार क्रांति पंथ पर,
झूम जा जीवन की रज बिखेर कर ,
जीवन मरुथल में व्याकुल कंठों को ,
जीवन धार पिलाने को परिवर्तन कर ,
है भ्रष्टता में लिप्त घोर भ्रष्ट तंत्र 
निज जीवन की आहूति दे कर खंडन कर ,
ये युद्ध अस्त्र-शस्त्र का  नहीं है, हे !अर्जुन ,
ये युद्ध विचारों का है धार के ध्यान तू सुन ,
चढ़ कर मानवता के रथ पर समता का भाषण  कर ,
मानवता के कोमल  चरणों में निज जीवन अर्पण कर ,
तरस रहीं है मेरी ऑंखें दर्शन को ,
दिखा मुझे तू परिवर्तन दृश्य  उकेर कर ,
एक बार क्रांति पंथ पर ,
झूम जा जीवन की रज बिखेर कर ,

 तुम्हारा --अनंत "

 जीवन खुद के लिए जीने का नाम नहीं बल्कि किसी और के लिए जीने का नाम है ''
इंक़लाब जिंदाबाद !!!!!!!!!!!!!!!!!!!
उन्हें भी जीने का हक है जिन्होंने जीवन देखा ही नहीं ,ये जीवन भी कितना अजीब होता है न !!!!!!!!!!
 किसी के लिए  कुछ और है किसी के लिए कुछ और,
 अमीरों के लिए मज़ा  है ये जीवन ,गरीबों के लिए सजा .......
क्या आप अपने जीवन में इसके खिलाफ आवाज़ उठांगे ??????

बुधवार, मई 04, 2011

मंदिरों-मस्जिद को उसका घर

मेरी हसरतों को बस खार ही  नसीब हुए,
फूलों को किसी और ने चुरा लिया ,
खता किसी और की क्या कहें ''अनंत''
हमने ही आंसुओं को मुकद्दर बना लिया ,
सोया कभी दर्द ओढ़ कर ,
कभी दर्द को बिचौना  बना लिया ,
जिया दर्द को  दिल में साथ ले कर ,
दर्द को हमने हमसफ़र बना लिया ,
लोग डरतें हैं ,हादसों से ,
हमने हादसों से दिल लगाया ,
ये हादसे ही तो थे ,
जिन्होंने हमें  शायर  बना दिया ,
चौक पर पर खड़ी थी शरीफों की ज़मात,
मै गुजरा उधर से आइना ले कर ,
न जाने क्यों वो बेवजह बिगड़े मुझ पर,
शायद मैंने उनको उनकी असलियत दिखा दिया ,
माँगू क्यों दुआ मै किसी पत्थर के सामने ,
किसी पत्थर दिल ने ही पत्थर को खुदा बना दिया ,
रहता था और रहता है, वो इंसानों के दिलों में ही ,
ये तो फिरकापरस्तों ने मंदिरों-मस्जिद को उसका घर बना दिया 
तुम्हारा --अनंत

रविवार, मई 01, 2011

जब तक जीत मिले न हमको , हमे लड़ते रहना है ,

  जब कौम किसी से लडती है तो बच्चा -बच्चा लड़ता है ,  
जब तक जीत मिले न हमको ,
हमे लड़ते रहना है ,
मंजिल जब तक मिले न हमको ,
हमें  बढ़ते रहना है ,
भूखे पेट पर हाँथ रख कर कसम खाओ ,
बांध कर मुट्ठी इंक़लाब का परचम लहराओ  ,
फाँकाकशों को जोड़ कर एक फौज़ बनाओ ,
मुफलिसी के खूँ से रँगी दिवार ये गिराओ ,
जब तक जीवन मिले न हमको ,
हमें  मरते रहना है ,
जब तक जीत मिले न हमको ,
हमें लड़ते रहना है ,..................

ग़म को यूँ ही , न दिल में दबाओ ,
न दबो किसी से , न अश्क बहाओ ,
कीमत समझो अपने पसीने की तुम ,
इसे परिवर्तन की  नदी बनाओ ,
जब तक सागर मिले हमको ,
हमें बहते रहना है ,
 जब तक जीत मिले न हमको ,
हमें लड़ते रहना है ,..................

तुम मजदूर ,तुम किसान ,तुम कामगार हो ,
तुम भूंखे हो ,तुम विपन्न हो ,तुम बेघर हो ,
तुम निर्माता ,तुम जनक ,तुम सर्जक हो ,
पर खुद को देखो तो तुम कितने जर्जर हो , 
जब तक सत्ता मिले न हमको ,
हमने शक्ति दिखाते  रहना है ,
जब तक जीत मिले न हमको ,
हमें  लड़ते रहना है ........................

तुम्हारा -अनंत  
इन्कलाब जिंदाबाद ................
मजदूर एकता जिंदाबाद ......छात्र एकता जिंदाबाद ........किसान एकता जिंदाबाद ......
आज 1 may है जो की मजदूरों के संघर्ष के प्रतीक के रूप में पूरे विश्व  में मनाया जाता , इस may दिवस से पूरे विश्व का मजदूर वर्ग प्रेरणा और संघर्ष की शक्ति प्राप्त करता है  .ताकि वो इस पूंजीवादी शोषण पर टिकी हुई व्यवस्ता ,सरकार व मानसिकता के विरुद्ध लड़ सके  , और सर्वहारा दृष्टिकोण पर आधारित समाजवादी  व्यवस्था ,सरकार व मानसिकता स्थापित कर सके ........आज may दिवास पर मेरा मजदूर आन्दोलन व उनके संघर्षों को एक रचनात्मक समर्थन व नमन .......
तुम्हारा --अनंत