शुक्रवार, सितंबर 30, 2011

लावारिश सामान

माँ तो बस माँ होती है ,माँ जैसी और कहाँ होती है ????????????????
रात भर  चलता रहा ,
जहन के मैदान में ,
धीरे -धीरे ..........
शायद कोई ख्याल था ,
या फिर ख्याल का बच्चा ,
वो बम्बई की इमारत जितना सख्त और ऊँचा ,
या फिर तुरंत पैदा हुए बच्चे सा रेशमी ,
वो ख्याल कुछ अजीब ही था ,
हाँ कुछ अजीब ही था वो ................
माँ का दूध महक रहा था उस ख्याल से ,
आँखों में दिवाली का परा गया काजल लगा कर आया था वो ख्याल ,.....
पर मैं क्या करता ?,
बीबी बगल में लेटी थी ,

वो ख्याल बड़ी खामोशी से चिल्ला रहा था !!!!!!!!!!
 तुम यहाँ  मखमली गद्दे पर सो रहे हो ,
माँ वहाँ रसोई में  सा पड़ी है ,

माँ की याद में -
तुम्हारा --अनंत 

मंगलवार, सितंबर 27, 2011

काश मैं भी कोई कविता होता ,...............

आज मुक्तिबोध की बहुत याद आ रही है ,बड़ी दिन बाद मुक्तिबोध से बात हुई .मतलब पढ़ा ..
गर होंठ खोल कर दाँत दिखा देने को हँसी  कहतें है ,
अँधेरे में गम छिपा कर ,उजाले में मुस्कुराने को ख़ुशी कहते है ,
आंसुओं को पी कर ,मुर्दे लम्हों को जी कर ,
साँसों को ढोना ,दिल की गहराई में रोना ,
जिन्दगी है ?????
तो बेहतर है ऐसी हँसी ,खुशी ,जिन्दगी से ,
दर्द ,दुःख और मौत ,
कम से कम ये जो है वो दिखते तो है,
गर नुकीले है तो कहीं न कहीं चुभते तो है ,
ये एक हैं इनके मतलब भी एक हैं ,
गर बुरे हैं तो बुरे हैं ,
गर नेक हैं तो नेक हैं ,
पर ख़ुशी ,हँसी और जिन्दगी का कोई एक  मतलब नहीं ,
हर किसी की अपनी परिभाषा है ,
कोई समझौतों की किस्ती मौत को जिन्दगी समझता है ,
तो किसी को समझौते के खिलाफ लड़ते हुए मरना जिन्दगी लगता है ,
हर समय हँसी ,ख़ुशी और जिन्दगी गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते है ,
और मौका लगते ही साँप की तरह डस लेते हैं ,
मैं अब उस जंगल में नहीं जाना चाहता ,
जहाँ ये हँसी ,खुशी और जिन्दगी रहते है,
क्योंकी मैं जनता हूँ कि.......
बड़ी-बड़ी इमारतों के जंगलों के बीच जहाँ २१वीं  सदी की हँसी ,खुशी और जिन्दगी बसती है ,
वहाँ इंसान नहीं रहते ,
और जहाँ इंसान रहते हैं ,
वहाँ २१वीं सदी की हँसी ,खुशी और जिन्दगी नहीं रहती ,

खैर इस वक़्त मैं बहुत परेशान हूँ .........
हँसी ,खुशी और जिन्दगी चुनूँ की इंसान .............???????????
इसी परेशानी में दिन रात कविता बनता हूँ ...........

काश मैं भी कोई कविता होता ,...............

तुम्हारा --अनंत

सोमवार, सितंबर 26, 2011

आसान नहीं होता ,

पाश को पढ़ना और फिर-फिर पढ़ना अपने समय के प्यार और अपने समय की नफ़रतों को जानने की तरह है.
भूंखे पेट ,
भूखों के लिए लड़ना ,
आसान नहीं होता ,
जंगलियों के बीच ,
इंसान बन कर रहना ,
आसान नहीं होता ,
ईमान के बाज़ार में,
ईमान बचा कर रखना ,
आसान नहीं होता ,
खुद का घर जला कर ,
दूसरों का घर रोशन करना ,
आसान  नहीं होता ,
झूठों  के बीच ,
सच्चा बन कर रहना ,
आसान नहीं होता ,
पर ये भी सच है मेरे दोस्त !
आसान काम करने वाला ,
महान नहीं होता ,
और महानता का काम ,
कभी आसान नहीं होता ,
तुम्हारा --अनंत 

महान क्रांतिकारी कवि पाश की याद में ये मेरी रचनात्मक स्मृति ,उनकी लेखनी में जो आग थी उसकी हम जैसे परिवर्तनकामी लेखकों को बहुत जरूरत है .................................पाश क्रातिकारी कविता के कीर्ति स्तम्भ थे, वो सदैव प्रेरणा श्रोत के रूप में दैदीप्तमान रहेंगे ,,,,,,,,,,,,,,,
(पाश की याद में ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
ये मेरी कविता उन्ही को समर्पित है )

मंगलवार, सितंबर 13, 2011

कविता नहीं लिखता ............

कौन कहता है कि मैं कविता लिखता हूं , 
मैं लिखता हूँ पर कविता नहीं ........
मैं लिखता हूँ .......
अपने मन की बात को ,
दिल के दर्द को ,जज्बात को ,
ख़ुशी को , उमंग को  ,बहती तरंग को ,
प्रक्रति के प्रेम को ,इंसानों की जंग को ,
कलियों को ,फूलों को ,उनकी महक को ,
पक्षियों के जीवन को ,गुंजन को ,उनकी चहक को ,
नदियों की कल -कल को ,झरनों की झरन को ,
चन्द्रमा की शीतलता को ,आकाश की स्थिरता को ,
सूरज की लाली को ,पंडों की हरियाली को ,
मैं लिखता हूँ ...........
नदी और सागर के प्यार को , प्यार के खुमार को ,
झूठ और सच की तकरार को , छाई हुई बहार को ,
होठों की मुस्कराहट को ,दबे पांवों की आहट को ,
काल के कपाल को ,शोभित मृत्यु कपाट को ,
जन्म की खुशियों को ,मरण  के अवसाद को  ,
उत्तेजना की स्फूर्ति को ,छाये हुए प्रमाद को ,
जीत को  ,प्रीत को ,जीवन के मीत को ,
ख़ुशी को ,दुख को सर्वत्र फैले भयभीत को ,
लिखता हूँ ...........
मैं लिखता हूँ ...............
रिश्तों के ताने बाने को, टूटते मकानों को ,
भाई बहन के लगाओ को ,माँ बाप के जुड़ाव को ,
पति-पत्नी के संबंध को ,प्यार के बन्ध को ,
लुटते हुए बचपन को ,बटते हुए आँगन को ,
अस्थिर धरा को ,काली ज़रा को ,
महकती फिजा को ,बहती हवा को ,
आँखों में पानी को ,सिसकती जवानी को ,
मजबूर कहानी को ,जिन्दगी वीरानी को ,
लिखता हूँ ..................
मैं लिखता हूँ ...............
फैले हुए डर को , शक्तिहीन कर को ,
धमाकों की आवाज़ को ,सहमे समाज को ,
फर्श पर फैले खून को ,उमड़ते जूनून को ,
रोते बिलखते परिवार को ,पल में उजड़ते संसार को ,
राजनीतिक कुटिलता को  ,संसदीय जटिलता ,
भूंखे पेटों को ,आसमाँ के नीचे लटों को ,
मैं लिखता हूँ ........मैं कविता नहीं लिखता हूँ ...........
मैं सच्चाई लिखता हूँ ...
जब अच्छाई देखता हूँ ....
तब अच्छाई लिखता हूँ .......
जब बुराई देखता हूँ 
तब बुराई लिखता हूँ ..........
मैं लिखता हूँ
 पर कविता नहीं लिखता !!!!!!!!!

तुम्हारा ---अनंत