मंगलवार, सितंबर 27, 2011

काश मैं भी कोई कविता होता ,...............

आज मुक्तिबोध की बहुत याद आ रही है ,बड़ी दिन बाद मुक्तिबोध से बात हुई .मतलब पढ़ा ..
गर होंठ खोल कर दाँत दिखा देने को हँसी  कहतें है ,
अँधेरे में गम छिपा कर ,उजाले में मुस्कुराने को ख़ुशी कहते है ,
आंसुओं को पी कर ,मुर्दे लम्हों को जी कर ,
साँसों को ढोना ,दिल की गहराई में रोना ,
जिन्दगी है ?????
तो बेहतर है ऐसी हँसी ,खुशी ,जिन्दगी से ,
दर्द ,दुःख और मौत ,
कम से कम ये जो है वो दिखते तो है,
गर नुकीले है तो कहीं न कहीं चुभते तो है ,
ये एक हैं इनके मतलब भी एक हैं ,
गर बुरे हैं तो बुरे हैं ,
गर नेक हैं तो नेक हैं ,
पर ख़ुशी ,हँसी और जिन्दगी का कोई एक  मतलब नहीं ,
हर किसी की अपनी परिभाषा है ,
कोई समझौतों की किस्ती मौत को जिन्दगी समझता है ,
तो किसी को समझौते के खिलाफ लड़ते हुए मरना जिन्दगी लगता है ,
हर समय हँसी ,ख़ुशी और जिन्दगी गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते है ,
और मौका लगते ही साँप की तरह डस लेते हैं ,
मैं अब उस जंगल में नहीं जाना चाहता ,
जहाँ ये हँसी ,खुशी और जिन्दगी रहते है,
क्योंकी मैं जनता हूँ कि.......
बड़ी-बड़ी इमारतों के जंगलों के बीच जहाँ २१वीं  सदी की हँसी ,खुशी और जिन्दगी बसती है ,
वहाँ इंसान नहीं रहते ,
और जहाँ इंसान रहते हैं ,
वहाँ २१वीं सदी की हँसी ,खुशी और जिन्दगी नहीं रहती ,

खैर इस वक़्त मैं बहुत परेशान हूँ .........
हँसी ,खुशी और जिन्दगी चुनूँ की इंसान .............???????????
इसी परेशानी में दिन रात कविता बनता हूँ ...........

काश मैं भी कोई कविता होता ,...............

तुम्हारा --अनंत

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