सोमवार, जनवरी 30, 2012

बडबडाहट......गाँधीजी की पुण्यतिथि पर मेरी दो कड़वी कविताएँ

कई बार आदमी  कुछ कहना चाहता है पर कुछ कह नहीं  पाता,ये कुछ न कह पाना उसे बहुत कुछ कहने के लिए मथ देता है,उस वक़्त उस आदमी  की स्तिथि त्रिसंकू की तरह होती है वो ''कुछ'' और ''बहुत कुछ'' के बीच ''कुछ नहीं'' को नकार कर खुद से  ''कुछ-कुछ'' कहने लगता है |ये ''कुछ-कुछ'' वो अपने दिल से कहता है| अक्सर ये खुद से कुछ-कुछ कहना ही सच्चा कहना होता है | क्योंकि आदमी सुबह से शाम तक जाने-अनजाने वो कहता-करता रहता है जो वो न कहना चाहता है न करना |  लोग खुद से कुछ-कुछ कहने को बडबडाना कहते है ...मैं इसे सच की आवाज़ कहता हूँ | जब कभी मैं भी सच कहने पर आता हूँ तो बडबडाता हूँ|
मैं अकेला नहीं हूँ जो बडबडा रहा हूँ, मुझसे पहले भी निराला,मुक्तिबोध,नागार्जुन,पाश,शमशेर,त्रिलोचन,केदारनाथ अग्रवाल जैसे अनेक लोग  बडबडाते हुए पाए गए है,जिन्होंने  कविता के बंध काट कर उसे बडबडाते हुए आज़ाद किया और साथ ले कर अभिव्यक्ति की कांटे भरे पथ पर चल निकले शान से........ मैं भी चलना चाहता हूँ उसी राजपथ पर जिस पर चल कर कांटो का हार मिलता है,मैं भी बडबडाना चाहता हूँ ,मैं  झूठ के अलावा भी कुछ कहना चाहता हूँ |

( 1 ) काश बापू तुम्हारा नाम ''गाँधी'' न होता

गाँधी जी से प्रेम है मुझे,
आदर की लहलहाती फसल जो बोई गयी है,
हमारी शिक्षा के द्वारा,
फसल की हर बाली,
चीख चीख कर कहती है,
''गाँधी जी'' राष्ट्रपिता हैं,
मैं भी कहता हूँ,
''गाँधी जी'' राष्ट्रपिता है,
क्योंकि मुझे भूखा नहीं रहना,
या यूं कि मैं भूखा नहीं रह सकता,
''गाँधी'' रोटी है ,
सूखी रोटी,

मगर ये भी सच है कि गाँधी जी का नाम सुनते ही,
मेरे मन में भर जाता है, एक लिजलिजा सा कुछ,
शायद  सांप या फिर अजगर,
सांप होगा तो डसेगा,
अजगर होगा तो लील लेगा,
गाँधी जी के नाम में गांधारी छिपी है,
जो अंधे ध्रतराष्ट्र की पट्टी खोलने के बजाये,
स्वयं अंधी पट्टी बंध लेती है,
ऑंखें  इच्छाएँ पैदा करती है,
ध्रतराष्ट्र अँधा था उसकी कोई इच्छा भी नहीं थी,
पर गांधारी की  आँखें भी थी और इच्छाएँ भी,
जो अंधी पट्टी के पीछे कोहराम मचाये रखती थी,
मुझे लगता है कि ''गाँधी'' गाँधी  न होते,
गर उनका नाम ''गाँधी'' न होता,
इस ''गाँधी'' नाम ने उन्हें,
गांधारी बना डाला,
और राष्ट्र को  ध्रतराष्ट्र,


(2) बापू तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर

बापू तुमने कभी हिंसा नहीं की,
 सब कहते है,
पढ़ते है,
जानते है,
सीखते है,
सब के सब झूठे हैं,
मुझे माफ़ करना बापू !
मैं ये सच कहूँगा,
कि तुमने  बहुतों को मारा है,
 मरवाया है,

विदर्भ  में हजारों किसानों ने फाँसी लगा ली,
क्योंकि तुम्हारी हरे पत्तों पर छपी,
मुस्कुराती तस्वीर नहीं थी उनके पास,

झारखंड में 5 साल का छोटू ,
कुतिया का दूध पी-पी कर,
 अपनी मरी हुई लाश पाल रहा है,
क्योंकि उसकी विधवा माँ के पास,
तुम्हारी मुस्कुराती हुई तस्वीर नहीं है,

तुम्हे मालूम है ?
कि तुम्हारी चंद मुस्कुराती हुई तस्वीर पाने के लिए,
रोज  तन बेचती है,
 देश की हजारों-हज़ार बच्चियां.....माएं,
क्या करें पेट भरने के लिए,
तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर जरूरी है,

बारह साल का कल्लू  जेल में बंद है,
कसूर रेल में पानी की  बोतल बेच रहा था,
घर में बीमार माँ-बाप और विकलाँग भाई की दवा करने के लिए,
तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीरों की जरूरत थी उसे,
पुलिस ने पकड़ा,
और तुम्हारी उतनी तस्वीरें मांगी,
 जितनी वो एक महीने में इकठ्ठा करता था,
नहीं दे पाया .....कल्लू  
तो तुम्हारी मुस्कुरती हुई तस्वीर के निचे बैठ कर,
 मजिसट्रेट ने 6 साल की सजा सुनाई दी उसे,
 और तुम हँस रहे थे,

तुम हत्यारे थे कि नहीं,
 मुझे नहीं मालूम,
पर तुम्हारी तस्वीर हत्यारी है,
तुम निष्ठुर-निर्दयी थे कि नहीं,
 मुझे नहीं मालूम,
पर तुम्हारी तस्वीर निष्ठुर और निर्दयी है,
तुम पक्षपाती थे कि नहीं,
 मुझे नहीं मालूम,
पर तुम्हारी तस्वीर पक्षपाती है,
तुम हिंसक थे की नहीं,
 मुझे नहीं मालूम,
 पर तुम्हारी तस्वीर हिंसक है,
तुम्हे पाने के लिए गरीब अंपने  तन से ले कर मन तक बेच देता है,
 पर तुम उसके हक के बराबर भी उसे नहीं मिलते,
 चले जाते हो,सत्ता के गलियारे  में ,
ऐस करने, या कैद होने,  
मुझे नहीं मालूम,

तुम्हारी हँसती हुई तस्वीर से चिढ है मुझे,
थाने से लेकर संसद तक जहाँ भी मेहनतकशों पर जुल्म ढाए जाते है,
तुम हँसते हुए पाए जाते हो,

 जब गरीब तुम्हारी कमी से,
 अपना मन कचोट रहा होता है,
तुम हँसते मिलते हो,
तुम्हारी कमी से,
 जब किसी गरीब को,
 उसके बौनेपन का एहसास होता है,
और जब इनसान होने का सारा वहम  टूट जाता है 
उसी पल तुम उसे मार देते हो,
मुझे भी तुमने इसी तरह कई बार मारा है ,

बापू मैंने सुना है कि,
तुम्हे गुस्सा नहीं आता, 
गुस्सा मत करना,
मुझे कुछ कहना है (तुम चाहो तो इसे मेरा बडबडाना भी कह सकते हो)

अगर तुम्हारी तस्वीर ऐसी है,
तो तुम कैसे होगे ????????.......
(ये क्या कह दिया मैंने ....हे राम !!!......................मृत्यु  )


गाँधीजी.......तुम्हारा-- अनन्त

शुक्रवार, जनवरी 27, 2012

मैं कहता हूँ,................कि मैं बांसुरी हूं,



उससे बिछड़ कर बाँसुरी हो गया हूँ,
दिल के हर ज़ख़्म,
सुराख है,
समाती है जब उसकी याद की खुशबु,
हर एक ज़ख़्म से उसका ही नाम टपकता है,
बड़ा मधुर है उसका नाम.........

न कोई धुन,न कोई ताल,
न कोई गीत,न कोई नज़्म,
न कोई आवाज़, न कोई  ज़ज्बा,
अब कुछ भी नहीं है,
बस वो है और उसकी याद है,
मैं हूँ और मेरे ज़ख़्म,
इनके अलावा गर कुछ बचा है,
तो वो है एक बांसुरी,
जिसमे अक्सर लोग मुझे,
खोजते हुए भटक जाते है..........

अकेले बजता रहता हूँ,
तन्हाई के पहाड़ पर,
चुपके से कलम बिन लेती है,
रंगीन बोल,
ढाल देती है,
उसे दर्द के सांचे में,
और तुम कहते हो,
कि ये कविता है,
नज्मों-ग़ज़ल है,
मैं कहता हूँ,
ये उसके नाम है,
तुम कहते हो,
 कि मैं शायर हूँ,
मैं कहता हूँ,
कि मैं बांसुरी हूं,

(तुम  मुझे नहीं समझ सकते क्योंकि तुम उससे नहीं मिले..................)

 तुम्हारा --अनंत

गुरुवार, जनवरी 26, 2012

इस झूठी दुनिया में........

मेरी कब्र खोदने के लिए ही मैंने कलम उठाई है
कुदाली  की तरह खोदेगी ये मेरी कब्र ,
चीटियों के कंधे पर चढ़ कर मैं पहुंचूंगा,
उस जगह,
जहाँ मैं आजाद हो जाऊँगा ,
मुसलसल चली आ रही कैद से,
ख्याल हो कर बैठ जाऊंगा,
दिलों के भीतर,बहुत भीतर,
और कभी-कभी निकालूँगा,
सिसकियों का मासूम लिबास पहने,
या फिर शीशे के घोल पिए हुए,
चिलाऊंगा तेजी से,
कोई सुने न सुने,
झंडे के नीचे जमे अँधेरे के खिलाफ,
दिया बनने के लिए कलम उठाई है मैंने ,
ये जानते हुए कि अदना ही सही पर,
बड़ा गहरा है ये अँधेरा,
मुझ  अकेले के जलने से नहीं हटेगा,
मैं उसके लिए सिर्फ कलेवा हूँ,
ये अच्छी तरह जनता जनता हूँ मैं,
पर मैंने तय कर लिया है
मैं खुद को मारूंगा
मैंने तय कर लिया है,
इस झूठी दुनिया में मैं सच बोलूँगा,

अनुराग अनंत

मंगलवार, जनवरी 17, 2012

''हम भारत की चिड़ियाँ ...............................

बेचारी चिड़ियाँ
भूखी जनता का पेट भर गया है ,
चुनते-चुनते ,
लोकतंत्र  ,लोकहित ,लोकमत ,
लोक के लिए परलोक की बातें है ,
अखबार से ले कर सोशल नेटवर्किंग साइट्स तक ,
चुनने  के लिए दबाव डाल रहे है,
अब कौन कहे कि किसे चुनें ,
सब जहर के बीज है,
बेचारी चिड़ियों की फ़िक्र किसे है,
जो एक बार चुन कर,
पांच सालों तक अपनी आवाज़ खो देंगी,
कटवा लेंगी अपने पँख लाइन में खड़े होकर,
रचा जायेगा उनके कटे पंखों की बिसात पर बहुमत का चक्रव्यू,
मुर्छित पड़ी रहेंगी सभी चिड़ियाँ  नेपथ्य के अँधेरे में लिथड़ी हुई,
और मंच पर मुसलसल जारी रहेगा संसद का एकल नाट्य,
पूरी हनक के साथ अगले पांच सालों तक,
मन करता है चुपके से एक सच्चाई लिख आऊँ उस महान किताब के पहले पन्ने पर ,
कि जिस पर लिखा है ''हम भारत के लोग ................
की जगह ...''हम भारत की चिड़ियाँ ................................
पर क्या करूँ मैं ये नहीं कर सकता ,
क्योंकि इस देश में सच्चाई मर गयी है 30  जनवरी 1948  को,
राज घाट में ''हे राम'' कह कर
और उसकी लाश दफना दी गयी है,
गरीबों के खून से छपे हरे नोटों में,
मुस्कुराती हुई तस्वीर की कब्र में,
मुझे याद आ रही है वो कहानी,
जिसमे सभी चिड़ियाँ फंस गयी थी बहेलिए के जाल में,
वो एक साथ जोर से उड़ी थी पूरी ताकत के साथ,
और आजादी मिल गयी थी उन्हें,
मुझे लगता है कि समय आ गया है उड़ने का,
पूरी ताकत साथ उड़ो कि आजादी मिले सभी चिड़ियों को....
 
तुम्हारा--अनंत