शुक्रवार, जनवरी 27, 2012

मैं कहता हूँ,................कि मैं बांसुरी हूं,



उससे बिछड़ कर बाँसुरी हो गया हूँ,
दिल के हर ज़ख़्म,
सुराख है,
समाती है जब उसकी याद की खुशबु,
हर एक ज़ख़्म से उसका ही नाम टपकता है,
बड़ा मधुर है उसका नाम.........

न कोई धुन,न कोई ताल,
न कोई गीत,न कोई नज़्म,
न कोई आवाज़, न कोई  ज़ज्बा,
अब कुछ भी नहीं है,
बस वो है और उसकी याद है,
मैं हूँ और मेरे ज़ख़्म,
इनके अलावा गर कुछ बचा है,
तो वो है एक बांसुरी,
जिसमे अक्सर लोग मुझे,
खोजते हुए भटक जाते है..........

अकेले बजता रहता हूँ,
तन्हाई के पहाड़ पर,
चुपके से कलम बिन लेती है,
रंगीन बोल,
ढाल देती है,
उसे दर्द के सांचे में,
और तुम कहते हो,
कि ये कविता है,
नज्मों-ग़ज़ल है,
मैं कहता हूँ,
ये उसके नाम है,
तुम कहते हो,
 कि मैं शायर हूँ,
मैं कहता हूँ,
कि मैं बांसुरी हूं,

(तुम  मुझे नहीं समझ सकते क्योंकि तुम उससे नहीं मिले..................)

 तुम्हारा --अनंत

1 टिप्पणी:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत खूब!