सोमवार, अप्रैल 23, 2012

लड़की!

लड़की! 
उडती हुई चिड़िया के पर गिन रही है,
उसे यकीन है,
कि एक दिन,
वो भी उड़ सकेगी,

लड़की!
बहती हुई धार की चाल देख रही है,
उसे यकीन है,
कि  एक दिन,
वो भी बह सकेगी, 

लड़की!
धधकते हुए अल्फाज चुन रही है,
उसे यकीन है,
कि एक दिन,
इन्हें वो भी कह सकेगी,

लड़की!
बंद कमरे में कुछ लिख रही है,
उसे यकीन है,
कि एक दिन,
इन्हें सब के सामने  पढ़ सकेगी,

लड़की!
खुली आँखों से सपने देख रही है,
उसे यकीन है
कि एक दिन,
इन्हें वो भी जी सकेगी,  

तुम्हारा--अनंत  


रविवार, अप्रैल 22, 2012

एक मेमना कल मार दिया गया है,

एक मेमना कल मार दिया गया है,
डूबते सूरज को साक्षी करके,
शहर के आखरी छोर पर,
उसके कान में कहा गया,
कि तुम झूठ के जाल में,
फंसे हुए एक कीड़े हो,
इसलिए तुम्हे मर  जाना चाहिए,

बिना आंगन वाले घर के छत पर,
चढ़ कर चाँद ने सीढियों से नीचे झाँका,
दो जिस्म, एक मेमना और एक मोबाइल,
बरामद हुए थे,
रात के उस प्रहार,
जब सब सो रहे थे,
प्रेमपत्र पर लिखे गए,
बेमानी जज्बात की  तरह,

प्रेम के अचार को;
चाटा गया, चूसा गया,
और फिर फेंक दिया गया,
सीढियों  के नीचे,

मेमना एक जिस्म के साथ चला गया,
मोबाइल एक जिस्म के साथ,
चूसा और चटा हुआ;
प्रेम का अचार पड़ा रह गया,
सीढियों के नीचे,

गुलाबी एहसासों वाले प्रेम को;
नीली फिल्म बनते देर नहीं लगती,

देखा था जिसे कल चाँद ने,
आज सारी दुनिया देख रही है,
विस्वास की जलती चिता में,
आँखें सेंक रही है,

छोटे शहर के,
एक बड़े अस्पताल में,
एक छोटा सा, बड़ा काम कर दिया गया है,
एक मेमना कल मार दिया गया है,

तुम्हारा--अनंत 

गिरफ्त

चाय से चाय छान कर अलग कर दें,
तो काली चाय बचती है,
ठीक उसी तरह जैसे ;

भूख से भूख छान कर अलग कर देने पर,
काली भूख बचती है,

काली चाय में जितना दूध मिलाया जाता है,
काली चाय उतनी ही सफ़ेद हो जाती है,

काली भूख में जितनी रोटी  मिलाई  जाती है,
काली भूख उतनी ही सफ़ेद हो जाती है,

दूध का रंग सफ़ेद है,
रोटी का रंग सफ़ेद है,
अफ़सोस दोनों सफ़ेदी की गिरफ्त में है,

तुम्हारा--अनंत 

शनिवार, अप्रैल 21, 2012

सवालों के साथ मुठभेड़

रोटी की फिकर,
किसी टूटे हुए नल से,
टपकते हुए पानी की तरह होती है,
जो टप..टप...टप...की जगह,
रोटी...रोटी....रोटी करती है,

रोटी की फिकर वो सवाल है,
जो अध्यापक प्रश्नपत्र में दे तो देता है,
पर उत्तर स्वयं नहीं जानता,
सारी कक्षा के फेल हो जाने के बाद,
अध्यापक  खुद फेल हो जाता है,
और वो सवाल जिंदगी के जलते हुए तावे पर,
सेंक दिए जाते है,
उन्हें भुने हुए गोस्त की तरह पैर-पर-पैर चढ़ा कर,
बड़े किले के पीछे कुर्सी वाले खाते है,

सवाल की रीढ़ की हड्डी का एक सिरा ,
खिखिया कर हँसता है  
एक सिरा रोटिया  कर रोता है,

और एक नहीं कई लाश अपने पीठ पर ढोता है,
उन इंसानों की लाश,
जो आँखों को चौंधिया देने वाली चमक में,
अँधेरी गली के अंधे मोड़ पर,
मारे गए थे,
सवालों के साथ मुठभेड़ में,

जो सवाल बच गए हैं ,
किसी जिन्दा लाश के बगल में,
सर पर हाँथ रखे,
बैठे हुए, डूबे  हैं ,
रोटी की फिकर में,

तुम्हारा--अनंत 

सबसे लम्बी दूरी...

सबसे लम्बी दूरी तय करना  है,
एक लम्बी सुरंग,
जिसके एक सिरे पर दर्द है,
और दुसरे सिरे पर,
दर्द का हमशक्ल,

डर, गुस्सा, घृणा, आंसू, उम्मीद, आशा, झल्लाहट,
और बहुत सारे बेनाम-अनाम लोग,
उस लम्बी दूरी के बीच भटक रहे हैं,

समोसा की तरह तिकोना मुंह,
तीर की तरह शरीर,
नाव की तरह पाँव,
रोटी की तरह पेट,
ताड़  की ताड़ी सा पसीना,
बहाते  हुए चले जा रहे हैं,

सबसे लम्बी दूरी तय करना है,
पीठ से पेट के बीच की दूरी,
ख़ामोशी से शब्द के बीच की दूरी,
कल से आज के बीच की दूरी,
इंसान से इंसान के बीच की दूरी तय करना है,
सबसे लम्बी दूरी तय करना है..

तुम्हारा --अनंत 


दो बूँद रौशनी की....

कुत्ते ने नहीं गाया है बहुत दिनों से राग भैरवी
और गाय भी भूल गयी है
कैसे कटी थी, पिछली बार.

नई धुन में प्यार पोंका जायेगा,
सब तैयार हैं सिवाय उस बैल के,
और उस शेर के,
जो माटी और ईंट-सीमेंट के बने हैं,

अँधेरे की बोलत में मिनिरल वाटर नहीं है,
न ही है; कोल्डड्रिंक,
शराब भी नहीं है,
रौशनी है चाशनी में घुली हुई,
दो बूँद टपकाता है,
दो-दो बूँद,
सारा देश पोलियो ग्रस्त हो गया है,
दो बूँद रौशनी के पी कर, 

तुम्हारा--अनंत 

कफ़न.....

आशुतोष से साभार ......
लौंग के फूल की तरह, 
तोड़ कर अलग कर दिया जाता है कवि, 
और कविता चबा ली जाती है,
 मुंह महकाने  के लिए,

अलमारियों के जिन खांचो में किताबों के कंकाल पड़े हैं,
 उनमे नमक की अदृश्य बोतलें बहाई गयी है,

ख़ामोशी की ख़ाकी चादर उढ़ा कर ढांक दिया गया है, 
उस कातिल खंजर को;  कि जिससे कल बेवक्त, वक़्त का क़त्ल किया गया था,
और रोते हुए संगीत को ढोते हुए,
साज की जान निकल गयी थी प्यास से, 

कफ़न की जगह पहनाया गया था तिरंगा,
जिससे भाग कर छिप गया था बलिदान और संघर्ष का केसरिया रंग जंगलों में,

हरियाली को लकवा मर गया था 
वो किसी बड़े अस्पताल में भर्ती है,
अब उससे मिलने के लिए कार से जाना पड़ता है,
जिसके पास कार नहीं है वो हरियाली  से नहीं मिल सकता,

स्वाभिमान कल दो रुपये किलो बिक रहा था,
किसी ने नहीं ख़रीदा उसे,
अशोक के चक्र नीचे आ कर उसने जान दे दी,
अशोक के  चक्र को ताज़े-राते-हिंद-तउम्र-कैदे-बमशक्कत हुई है 
अब  तो  तिरंगे में महज उदास सफ़ेद रंग बचा है,
जो कफ़न है, 
जन-गण-के मन पर पड़ा हुआ,
कफ़न !

तुम्हारा--अनंत 

सोमवार, अप्रैल 02, 2012

मैं कलाकार हूँ, हां मैं कलाकार हूँ,..........

कलाकार बड़ा ही अजीब होता है, उसे दर्द होता भी है और नहीं भी होता, उसे  ख़ुशी होती  भी है और नहीं  भी होती,  खुद के गम को गम नहीं समझ जाता उससे और दूसरों के गम से मूंह भी नहीं मोड़ा जाता, जिन लोगों को भी भगवान पर विश्वास है वो अक्सर ये कहते हुए पाए जाते है ''कलाकार को भगवान ने जाने कौन सी मिट्टी से बनाया है'' उन लोगों में एक मैं भी हूँ क्योंकि मैं भी कहीं न कहीं इश्वर जैसी किसी चीज पर विस्वास करता हूँ .......पर उसका रूप, और परिभाषा वैसी नहीं है जैसा ठग विद्वानों ने बताया है. खैर आज एक पन्ना मिला, पुरानी किताबों के बीच से बहुत पहले लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ शायद उस वक़्त जब मन ये निश्चय कर रहा था कि अब कलाकार ही बनना है, चाहे जो कीमत चुकानी पड़े,,,,,,,,,,,, तो मिलिए उन पंक्तियों से........


                                                                            ( 1 )

काँपती  हवाओं की शाखाओं पर,
हमने आशियाना बना रखा है,
जोड़ कर तिनका-तिनका,
एक शहर सजा रखा है,
पर गर वक़त की सुनामी में,
 बह जाए सब कुछ,तो भी गम नहीं,
हम कलाकार हैं हमने दिल फौलाद बना रखा है,

                                                                          ( 2 )
अँधेरे में भी जो चमक जाते हैं,
गर्दिशों में हँसते हैं, मुस्कुराते हैं,
लाख गम हो सीने में उनके,
 पर कहाँ वो उस गम को दिखाते है,
बनाया है फौलादी मिट्टी से खुदा ने उनको,
वो कलाकार हैं बमुश्किल आंसू बहते है,


                                                                         ( 3 )
दिल की दिवार पर पड़ी एक दरार हूँ,
जिंदगी के साथ हुआ एक टूटा  करार हूँ,
ज़माने ने बनाई जो कालकोठरी जिम्मेदारियों की,
मैं उन कालकोठरियों से, मुजरिम फरार हूँ,
मैं कलाकार हूँ, हां मैं कलाकार हूँ,

भीगा है  दिल आंसूओं से,
मैं उनकी चुभती बातों का शिकार हूँ,
डसती है जहरीली निगाहें अपनों की,
मैं उनकी नज़रों में, एक इंसान बेकार हूँ,
मैं कलाकार हूँ, हां मैं कलाकार हूँ,

भूखे बच्चों के चेहरों पर,प्रश्न चिन्ह तैरते हैं.
बीबी के शाब्दिक नाखून मेरे ज़ख़्म उकेरते हैं,
माँ बिमारी में तड़प कर एडियाँ रगडती है,
बाप की बूढी आँखें अब मुझसे झगडती हैं,
हक़दार हूँ मैं तुम्हारी तालियों का,
पर उनका गुनाहगार हूँ,
मैं कलाकार हूँ, हां मैं कलाकार हूँ,

मैं छोटे भाई बहनों को प्यार न दे सका,
उनकी बिखरती जिंदगी को संवार न सका,
लुट गया बचपन उनका बचपन में ही,
और मैं फस हुआ था गीत-ओ-गुंजन में ही,
कभी-कभी सोचता हूँ तो लगता है,
 मैं एक मजबूत घर की  कमज़ोर दीवार हूँ,
 मैं कलाकार हूँ, हां मैं कलाकार हूँ,

तुम्हारा---अनंत