मंगलवार, सितंबर 02, 2014

जहाँ “कुछ” नहीं है, वहां “कुछ नहीं” है !!

खाली जगह में भरे हुए एकांत को
जब जब महसूसा है
मुस्कुराया हूँ मैं
और कहा है खुद से
जहाँ “कुछ” नहीं है
वहां “कुछ नहीं” है

“कुछ” के चले जाने के बाद
“कुछ नहीं” बचता है “कुछ” की जगह में
और इस “कुछ नहीं” में
होतीं हैं “कुछ” की यादें
उसकी हंसी, उसका गुस्सा
उसका पागलपन, उसका नशा
उसकी चूड़ियों की खनक
उसके बालों की महक
उसकी पायल की झंकार
उसकी गीली-गीली पुकार

अँधेरे से कमरे में
अवसाद के बगल में
“कुछ नहीं” की शक्ल में
एकांत के बिस्तर पर
ऊब की उंगलियाँ फोड़ते हुए   
“कुछ नहीं” पड़ा रहता है, सातों दिन
कुछ नहीं करते हुए

“कुछ नहीं” कुछ इस तरह बात करता है मुझसे
कि और किसी को आजकल सुन ही नहीं पाता मैं
दुनिया की सारी आवाजें भाप बन जातीं हैं
जब “कुछ नहीं” उगता है सूरज की तरह
मेर ज़हन के हर एक कोने से

मैं एक टूटी हुई राग हाँथ में उठता हूँ
उस पर गिरह पर गिरह लगता हूँ
और जब गाने की कोशिश करता हूँ
तो मेरे शब्द उदास और आवाज़ घायल हो जाती है

मेरा मन करता है
कि मैं किनारों के संवाद को लिखूं
और नदियों के मौन को सहलाऊं

दो पहाड़ियों के बीच की खाई में
भरी हुई हवा से पूछूँ
कि कैसा लगता है उसे
जब रोतीं है पहाड़ियां
होतीं हैं उदास
और लिखतीं हैं, कोहरों के बदन पर कविताएँ

मन करता हैं
पूछूँ, उस आदिम मौन से
कि कैसे उसने शब्दों के समंदर को
अनुशासन पढ़ाया है

मन करता है
पूछूँ, सूनसान रास्तों से
कि कौन सा मुसाफिर
उन्हें यहाँ तक ले कर आया है

मन करता है
मैं इस तरह खामोश रहूँ
कि आवाज परिभाषित हो, मेरी ख़ामोशी से
और विश्व भर की भाषाओँ को
मेरी शांति के सहारे की जरुरत पड़े

मैं जानता हूँ
कि उदास रहना कितना ख़तरनाक है
इस उदास समय में 
और मैं ये भी जानता हूँ
कि मेरी एक सांस और दूसरी सांस के बीच
सिवाय उदासी के “कुछ नहीं” है

“कुछ नहीं” जब करवट लेता है
मैं उदासी की एक गोली खा लेता हूँ
दूसरी करवट पर, दूसरी गोली

“कुछ नहीं” की हर हलचल के साथ
मैं उदासी की एक गोली खाता हूँ
इसतरह मैं उदासी का मरीज हूँ
और उदासी ही मेरी दवा है

कितना अजीब होता है न
मरीज, मर्ज और दवा का रिश्ता
अनंत भुजाओं वाले त्रिभुज की तरह
फैला होता है, जीवन के हर कोने तक
हर कण तक

बिना मरीज के मर्ज नहीं
बिना मर्ज के, दवा का क्या काम?
कितना प्रेम है न, तीनों में
कितना सामंजस्य है
एक के बिना दुसरे का कोई अस्तित्व नहीं
जहाँ एक नहीं, वहाँ दूसरा नहीं

मैं सोचता हूँ
मरीज, मर्ज और दवा ही जीवन का अकाट्य सत्य है
ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे लिए ईश्वर है
और मेरे लिए मृत्यू

जब सोचता हूँ मैं ये सब
“कुछ” हँसता है, मेरे भीतर और पूछता है
क्यों परेशान हो ? क्या हुआ ?
मैं कहता हूँ
“कुछ नहीं”

“कुछ” चला जाता है
और “कुछ नहीं” रह जाता है
“कुछ” की जगह पर


तुम्हारा-अनंत 

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