शुक्रवार, अप्रैल 07, 2017

वो थी रेखा..!!

वो बहुत दिन बाद मिली थी।  शादी के बाद पहली बार, ढाई साल हो गए थे, उसकी शादी को। नहीं-नहीं, तीन साल हुए थे। चौक में रहीम चाचा वाले मोड़ पर मिली थी।  मैं और रेखा बचपन के दोस्त थे। लोग रेखा-रुकसाना बहन-बहन हैं, कहते थे। और हमें लगता भी ऐसा ही था। पर जैसे जैसे हम बड़े होने लगे।  हमें लगने लगा कि जो हमें लगता था, गलत था । मेरे घर वाले मुझे डाँटते थे कि "रेखा के घर मत जाया कर" और रेखा के घर वाले रेखा को। उन्हें डर था कि मैं हिन्दू और वो मुस्लमान लड़के से इश्क़ न कर बैठें। वो इसे अपनी ज़बान में फंसना, टांगना, पटना जैसा कुछ कहते थे। सो हमारे घर वालों को डर था कि हम कहीं गैर मजहब के लड़कों से न फंस जाएँ, टंग जाएँ, पट जाएँ। इसलिए हमारा मिलना जुलना बेहद कम हो गया था। पर दिलों में हम एक दूसरे से मिले हुए थे। हमने अपना दीन, अपना नाम, अपने माँ बाप, रिश्ते-नाते खुद नहीं चुने थे पर हमने एक दूसरे को अपना दोस्त खुद चुना था। इसलिए हमें अपने रिश्ते से मोहब्बत थी।

रेखा को सीधी रेखा पर चलना पसंद नहीं था। इसलिए वो कुछ न कुछ अड़ा-तिरछा कर ही देती थी। हमें जिस तरह हिन्दू मुस्लमान लड़कों से दूर रहने को कहा गया था। हमारे मन में उनको जानने की एक अनकही सी आरजू रहा करती थी। पर हम डरते थे। इसलिए जैसा घर वाले कहते थे, वैसा ही करते थे। पर रेखा को सीधी रेखा पर चलना पसंद नहीं था, इसलिए वो वसीम भाई से प्यार करने लगी थी। ये बात उसने मुझे कभी नहीं बताई जैसे मैंने उसे कभी नहीं बताया कि मैं राहुल को चाहने लगी थी। राहुल कालेज की क्रिकेट टीम का कैप्टन था और वसीम भाई कालेज के महबूब शायर, पूरे कालेज की लड़कियां उनपर मरतीं थीं पर वो रेखा पर मरते थे. रेखा का हुस्न उनकी ग़ज़लों से बढ़ता जा रहा था और उनकी गज़लें रेखा के हुस्न से हसीन होतीं जा रहीं थीं । ये बात पहले कालेज की दीवारों के कानों में गयीं फिर रेखा के घर वालों के और फिर रेखा का कालेज आना अचानक बंद। बंद मेरा भी हो गया।  दंगों के बाद से।

दंगों में सूअर और गाय के मांस की हवा उडी। लोग रुई की तरह उड़ने लगे और जब गिरे तो लाश बन चुके थे। भीड़ लोगों की घरों  में घुसी  और घर को मकतल बना कर निकल आयी। दंगों में न हिन्दू मरे, न मुसलमान, मरे तो बस इंसान।  जो हिन्दू, मुस्लमान थे। वो चुनाव लड़े। जीते और एक मंच पर नैतिकता और शिष्टाचार के नाम पर गले मिले, मालाएं पहनी।  वसीम भाई भी उसी दंगों में मारे गए, उन्हें लगता था। वो शायर हैं तो दंगे रोक लेंगे। अपने कुछ दोस्तों के साथ चौराहे  पर कौमी  एकता पर तक़रीर कर रहे थे। और लव जिहाद के नाम पर उनसे आपसी रंजिस निकाल ली गयीं । वसीम भाई, गांधी के देश में गांधी की तरह मार दिए गए।  

उसके बाद मेरा निकाह  हुआ और रेखा की शादी हुई। और लगभग तीन साल बाद चौक में रहीम चाचा वाले मोड़ पर हमारी मुलाकात। मैंने पूछा, कैसी हो रेखा ? अच्छी हूँ, जवाब आया। ये क्या हाल बना रखा है ? तुम हो बुढ़िया लगने लगी हो! वो मुस्कुराई। और कहने लगी "किसी ने मुझे बताया था मैं बेहदहसीन हूँ, मैंने मान लिया था।  आज तुम कह रही हो, मैं बदसूरत हो गयी हूँ, बुढ़िया की तरह लगती हूँ, मैं ये भी मान लेतीं  हूँ" मैं क्या बोलूं, ये सोच ही रही थी कि रिक्शा वाला आया और वो उसमे बैठ कर हाँथ हिलाते हुए निकल गयी।  उस समय मुझे लगा, उस दिन दंगे में वसीम भाई के साथ कोई और भी मारा था।  वो थी रेखा। 

तुम्हारा-अनंत              . 

कोई टिप्पणी नहीं: